मेहरौली गांव – वक्त से भी लंबी दास्तां, 8 jun 14

June 13, 2014 in Delhi Heritage Walks,DHW,Heritage sites in Delhi,Heritage Walks,Mehrauli Village,Mehrauli Village Heritage Walks,Monuments of Delhi,Walking Tour | Comments (0)

मेहरौली जिसने शुरुआती हिंदू राजाओं की राजधानी लालकोट को अपनी जमीन पर देखा, जिसने गुलामों के बादशाह बन जाने का अजूबा देखा और देखा सारी बादशाहत को खाक बराबर समझने वाले कुतुब साहब जैसे दरवेश को. मेहरौली जहां योगमाया के मंदिर तक हिंदू-मुसलमान दोनों की पहुंच है, जहां सेंट जॉन का चर्च अपने वास्‍तु में हिंदू और इस्‍लामी इमारतों का मिला जुला रूप है, जहां सिखों के प्रसिद्ध योद्धा बंदा सिंह बहादुर का शहीदी स्‍थल है, जहां कुतुब साहब की दरगाह सभी कौमों और धर्मों के लोगों को अपनी शांति में डुबोती है- कौमी एकता की जीवित मिसाल है. मेहरौली एक बार आबाद होने के बाद उजड़ी नहीं. सल्‍तनतें और सियासत बदलती रहीं, लेकिन यहां कुछ ऐसा था जिसकी जड़ें सल्‍तनतों से ज्‍यादा गहरी थीं. यहां वर्तमान और इतिहास आपस में इस तरह गुत्‍थमगुत्‍था हैं कि उन्‍हें अलग नहीं किया जा सकता. ऐतिहासिक विरासत लोगों के जीवन में घुली-मिली है. शायद इसी तरह पुरखे हमारे जरिये जिंदा रहते हैं. यहां मुग़लिया सल्‍तनत द्वारा बनाया गया पहला मकबरा (आदम खान का मकबरा) दिखता है तो मुग़लिया सल्‍तनत का आखिरी महल (ज़फर महल) भी.

इस विरासतों की सैर (हेरिटेज वॉक) की शुरुआत हमने योगमाया मंदिर से की. योगमाया के बारे में मिथक है कि कृष्‍ण के जन्‍म के समय वासुदेव जिस कन्‍या को नंद और यशोदा के घर से ले आये थे वही योगमाया थी. जब कंस ने इस कन्‍या को पटककर मारने की कोशिश की तो वह उड़ गयी और आकर अरावली पर विराजी. ऐसा कहा जाता है कि पांडवों ने यहां पहला मंदिर बनवाया था. 12वीं शताब्‍दी के जैन ग्रंथों में मेहरौली को योगिनीपुरा के नाम से उल्लिखित किया गया है. इससे पता चलता है कि उस समय यह महत्‍वपूर्ण मंदिर रहा होगा. मुगल बादशाह अकबरशाह (द्वितीय) ने इसका जीर्णोद्धार कराया था. फिलहाल मंदिर की इमारत एकदम नयी है. इसके किसी भी हिस्‍से से इसकी पुरातनता के सबूत नहीं मिलते.

लोदी इमारतों की शैली में बना आदम खान का विशाल मकबरा हमारा दूसरा पड़ाव था. आदम खान की मां माहम अंगा ने बादशाह अकबर को अपना दूध पिलाया था. इस तरह वह अकबर की दूध मां थी. आदम खान अकबर का चहेता और सेना का जनरल था. उसने किसी विवाद में अकबर के एक मंत्री अतगा खान की हत्‍या कर दी. बादशाह ने आदम खान को आगरा के लाल किले की दीवार से गिराकर मारने की सजा दी. यह घटना अकबर के लिए इतनी महत्‍वपूर्ण थी कि यह ‘अकबरनामा’ की एक मिनियेचर पेंटिंग में चित्रित मिलती है. इस मकबरे ने बहुत दुर्दिन देखे हैं. लॉर्ड कर्जन द्वारा इसे फिर से मकबरा बनाने के पहले यह एक अंग्रेज अधिकारी का आवास रहा, फिर पुलिस स्‍टेशन, पोस्‍ट ऑफिस और रेस्‍ट हाउस भी रहा. जाहिर है गुजरते वक्‍त ने अपनी खरोंचें मकबरे पर छोड़ी हैं, लेकिन यह उस बादशाह के बारे में जरूर सोचने के लिए मजबूर करता है जिसने न्‍याय करते वक्‍त अपने दूध-भाई को भी नहीं बख्‍शा लेकिन उसकी याद में विशालकाय मकबरा की तामीर करवाया.

हम कुछ देर के लिए गंधक की बावली पर भी रुके. यह सीढ़ीदार पांच मंजिला कुंआ एक खास किस्‍म के पवित्रताबोध से आपको जोड़ देता है. ख्‍़वाजा कुतुबु‍द्दीन बख्तियार काकी के लिए दूसरे गुलाम शासक इल्‍तुतमिश ने इसे बनवाया था और पानी में गंधक की मात्रा अधिक होने के चलते नाम पड़ गया गंधक की बावली. कई बार उपयोगिता बनवाने वाले के नाम पर भारी पड़ जाती है.

हम सिखों के महान सेनानी और शहीद बंदा बहादुर के शहीदी स्‍थल पर गये और एक कश्‍मीरी ब्रह्मण के तंत्र-मंत्र के उपासक से सिख बनने की कहानी को याद किया. हमने बंदा बहादुर के उस निर्णय को भी याद किया जिसमें जमींदारी प्रथा पर रोक लगा दी गई थी और जोतने वालों को जमीन का मालिक बना दिया गया था. बंदा की शहादत को सिख धर्म में गर्व से याद किया जाता है.

ख्‍़वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर पहुंचना किसी भी बड़े सूफी के मजार पर पहुंचने से एकदम अलग अनुभव है. यहां न तो उतनी भीड़ देखने को मिलेगी न उतनी चहल-पहल. ख्‍वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी अजमेर शरीफ के ख्‍़वाजा मोइनुद्दीन चिश्‍ती के मुरीद थे और उनके बाद चिश्‍ती सिलसिले के मुखिया बने. उनके शिष्‍य हुए बाबा फरीद और बाबा फरीद के शिष्‍य हुए हजरत निजामुद्दीन. यह दरगाह फूलवालों की सैर का प्रमुख केन्‍द्र होती है. वैसे भी मेहरौली के लगातार बसे रहने के पीछे शायद इस दरगाह का बहुत बड़ा हाथ है. हिंदुस्‍तान ही नहीं दूसरे मुल्‍कों से भी लोग यहां अकीदत के लिए आते रहे हैं. अजमेर शरीफ जाने वाले लोग पहले यहां मत्‍था टेकने आते हैं क्‍योंकि ख्‍़वाजा मोइनुद्दीन का ऐसा ही हुक्‍़म था.

दरगाह से निकलकर हम ज़फर महल पहुंचे. पहुंचना भी क्‍या था हम बगल में ही तो थे. लाल पत्‍थरों से बना ज़फर महल का हाथी दरवाजा ढहती मुगल सल्‍तनत का आखिरी ऊंचा निशान है. इसे आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फर के वालिद अकबर शाह (द्वितीय) ने बनवाया था. ज़फर ने सिर्फ दरवाजा बनवाया और दुनिया महल को उन्‍हीं के नाम से जानती है. यहां हमने मिर्जा बाबर की अंग्रेजी ढंग की कोठी देखने के साथ ही 1857 की पहली जंगे-आज़ादी की काव्‍यात्‍मक त्रासदी से साक्षात्‍कार किया. हम उस दो ग़ज जमीन के सामने खड़े थे जिसकी लालसा में आखिरी मुग़ल बादशाह ने लिखा था – ‘कितना बदनसीब है ज़फर दफ़्न के लिए/ दो ग़ज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में’. इस तरह दो घंटे में हम हजारों वर्षों की यात्रा कर चुके थे.

जब भी मैं इन खंडहर हो चुकी इमारतों के पत्‍थरों पर हाथ रखता हूं उन मजदूरों और कारीगरों के हाथों महसूस करता हूं जो इनके अनाम निर्माता हैं, उस भक्ति, आस्‍था और अकी़दत और भाईचारे का हिस्‍सा हो जाता हूं जिसने हमें एक समाज के रूप में बने रहने दिया है – बिखरने नहीं दिया है, साथ ही उन शाही ऐय्याशियों और षड्यंत्रों का राजदार भी हो जाता हूं जो इन महलों में रची गई होंगी. विरासत रहेगी और हम उसे जानेंगे तभी तो सही गलत की तमीज़ भी सीखेंगे.

(Post by Awadhesh Tripathi & photos by Kanika Singh, team members, Delhi Heritage Walks)